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ग़ज़ल
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सर-ए-मक़्तल-ए-शब-ए-आरज़ू रहे कुछ तो इश्क़ की आबरू
जो नहीं अदू तो 'फ़राज़' तू कि नसीब-ए-दार कोई तो हो
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब
अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
ताक़-ए-अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुत-ख़ाने को हम