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ग़ज़ल
तेरे दीवाने हो जाते कहीं सहराओं में खो जाते
दीवार-ओ-दर में क़ैद हमें अगर अहल-ओ-अयाल नहीं करते
वाली आसी
ग़ज़ल
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मेज़ पे रोज़ सुब्ह-दम ताज़ा गुलाब देख कर
लगता नहीं कि हो कोई मुझ सा मिरे अयाल में
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
या'नी कि 'इश्क़ कीजिए या'नी ये 'उम्र कुछ नहीं
या'नी कि शौक़ और शय अहल-ओ-अयाल और शय
आज़ाद हुसैन आज़ाद
ग़ज़ल
मुख़ालिफ़ सफ़ में मेरा यार मुझ से लड़ने आया है
उठाऊँगा मगर अपनी मैं ढाल आहिस्ता-आहिस्ता