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ग़ज़ल
काम क्या कीजिए आग़ाज़ वहाँ अज़-सर-ए-नौ
अज़-सर-ए-नौ भी न रह पाए जहाँ अज़-सर-ए-नौ
सय्यद मसरूर जौहर
ग़ज़ल
दी मिरे भाई को हक़ ने अज़-सर-ए-नौ ज़िंदगी
मीरज़ा यूसुफ़ है 'ग़ालिब' यूसुफ़-ए-सानी मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
वो अपने ख़्वाब में तश्कील कर रहा है मुझे
ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क
ग़ज़ल
उन रिवायात को दोहराते हैं हम अज़-सर-ए-नौ
वो जो मंसूब हैं सदियों से तिरे नाम के साथ