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ग़ज़ल
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
शैख़ और बहिश्त कितने तअ'ज्जुब की बात है
या-रब ये ज़ुल्म ख़ुल्द की आब-ओ-हवा के साथ
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
अब लुट गया है क्या रहा दोज़ख़ से बढ़ के है
रश्क-ए-बहिश्त कहते थे सब जा-ए-लखनऊ
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
होता है इस जहीम में हासिल विसाल-ए-जौर
'मोमिन' अजब बहिश्त है दैर-ए-मुग़ाँ न छोड़