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ग़ज़ल
है बहिश्तों में 'यक़ीं' सब कुछ व-लेकिन दर्द नईं
भर के दिल रो लीजिए ये चश्म-ए-गिर्यां फिर कहाँ
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
पहले उस ने गले लगाया और मुझ को फिर ले गई बहिश्तों में
एक बात उस ने की ज़मीनी सी दूसरी बात आसमानी की
ख़ावर अहमद
ग़ज़ल
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
शैख़ और बहिश्त कितने तअ'ज्जुब की बात है
या-रब ये ज़ुल्म ख़ुल्द की आब-ओ-हवा के साथ