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ग़ज़ल
बस्त-ओ-कुशाद-बाज़द क्या है साँसों की हलचल के सिवा
चाँद घिरा हो जब मौजों में बढ़ती है तुग़्यानी और
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-बस्त-ओ-कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं
हम अपने शेरों में तेरा पैकर उतारते हैं