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ग़ज़ल
ये लाल-ए-लख़्त-ए-जिगर है वो लाल-ए-बेश-बहा
कि काम करती नहीं चश्म-ए-जौहरी जिस में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
माल मताअ' तो छोड़ आए थे बेश-बहा इक चीज़ थी बस
सो पाई अनमोल विरासत उर्दू बोलने वाला हूँ
वजीह सानी
ग़ज़ल
हर एक जवाहिर बेश-बहा चमका तो ये पत्थर कहने लगा
जो संग तिरा वो संग मिरा तू और नहीं मैं और नहीं
शाद लखनवी
ग़ज़ल
हैरत है अबस ऐ जो इन बेश-बहा मंसूबों पर
इस तरह के मोती तब निकले जब ज़ेर-ए-ज़मीं मैं डूब गया