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ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
फिर भटकता फिर रहा है कोई बुर्ज-ए-दिल के पास
किस को ऐ चश्म-ए-सितारा-याब वापस कर दिया
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
ख़ौफ़ से बुर्ज में जल्लाद-ए-फ़लक छुपता है
तुम जो बाँधे हुए तलवार नज़र आते हो
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़्ताब आ जाएगा
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
सारे अख़बारों में देखूँ हाल अपने बुर्ज का
अब मुलाक़ात उस से होगी कौन से हफ़्ते के बीच
अनवर मसूद
ग़ज़ल
मिल बिठाना है फ़लक मंज़ूर किस दिल-ख़्वाह का
बुर्ज-ए-मीज़ाँ में नहीं बे-वज्ह आना माह का
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
बुर्ज-ए-''अमल'' में ''चांस'' के सूरज की कर गिरफ़्त
सड़कें हैं ''ज़ाइचा'' तिरा ये क़ुमक़ुमे नुजूम
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
किया है दाग़ ने क्यों उस को मंज़िल-ए-ख़ुर्शीद
हमारा दिल है ये कुछ बुर्ज-ए-आफ़्ताब नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
रुख़ उस का देख हुआ ज़र्द नय्यर-ए-आज़म
सुनहरे बुर्ज से जिस दम वो मह-लक़ा निकला
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
शहर के ऊँचे बुर्ज भी मेरे क़द से छोटे थे
छोटे छोटे लोगों ने क्या ख़ूब बनाया शहर
इफ़्तिख़ार क़ैसर
ग़ज़ल
दाग़-ए-ग़म दिल पर उठा कर मरने वाले मर गए
बुर्ज क़ब्रों के अगर सर्व-ए-चराग़ाँ हों तो क्या