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ग़ज़ल
यही शैख़-ए-हरम है जो चुरा कर बेच खाता है
गलीम-ए-बूज़र ओ दलक़-ए-उवेस ओ चादर-ए-ज़हरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जब्बार वासिफ़
ग़ज़ल
होने को मुजाहिद भी हैं जाँबाज़ भी लेकिन
वो हौसला-ए-बूज़र-ओ-सलमाँ तो नहीं है
सूफ़ी अय्यूब ज़मज़म
ग़ज़ल
फ़क़्र की मुझ से ज़माने को तवक़्क़ो' थी फ़ुज़ूल
मैं शिकम-बंदा कोई बूज़र-ओ-सलमान था क्या