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ग़ज़ल
एक तरीक़ा ये भी है जब जीना इक नाचारी हो
हाथ बंधे हों सीने पर दिल बैअत से इंकारी हो
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मजबूरों की इस बस्ती में किस से पूछें कौन बताए
अपना मोहल्ला भूल गई हैं बे-चारी लैलाएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
घास चरी है जंगल की मैं जून में दुंबे बकरे की
उन का कुछ ढाला कि बिगाड़ा जिस पर ख़ंजर रानी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कहने वाला ख़ुद तो सर तकिए पे रख कर सो गया
मेरी बे-चारी कहानी रात भर रोती रही
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
नहीं कुछ ज़ोर से लेता कोई दिल दो न दो 'ममनूं'
ये मजबूरी का क्या मौजिब ये नाचारी का क्या बाइस
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
मय-ओ-माशूक़ से दौलत से बहार-ए-गुल में
चक्खियाँ रहती हैं यारों की चरी रहती है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
'हसन' गर पारसा हूँ मैं तो नाचारी से हूँ वर्ना
नज़र है जाम पर मेरी सदा और दिल है शीशे में
मीर हसन
ग़ज़ल
आँखें हैं हसीनों की तिरे सब्ज़ा-ए-रुख़ पर
क्यूँकि न हो मैलान ग़ज़ालों को चरी का
इम्दाद इमाम असर
ग़ज़ल
'बक़ा' हम गब्र-ए-ना-मुस्लिम थे पर आ कर ब-नाचारी
वो मुस्लिम-ज़ादा तिफ़्लों में मुसलमाँ हो के मिल बैठे