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ग़ज़ल
क्यूँ कर न होवे क्लिक हमारा गुहर-फ़िशाँ
करते हैं 'आबरू' ये तख़ल्लुस सुख़न में हम
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
तुम तो करते हो मिरी क्लिक-ए-सुख़न को पाबंद
कौन है कातिब-ए-तक़दीर-ए-वतन क्या जानो?
परवेज़ शाहिदी
ग़ज़ल
अहल-ए-सुख़न का या-रब क्यूँ मोहतसिब है दुश्मन
क्लिक ओ दवात है कुछ जाम-ओ-सुबू नहीं याँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ज़ाहिद के क़द्द-ए-ख़म कूँ मुसव्विर ने जब लिखा
तब क्लिक हाथ बीच जो था सो असा हुआ