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ग़ज़ल
कैसे दिल लगता हरम में दौर-ए-पैमाना न था
इस लिए फिर आए का'बे से कि मय-ख़ाना न था
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
क्या ग़म जो फ़लक से कोई उतरा न सर-ए-ख़ाक
जुज़ ख़ाक नहीं कोई यहाँ चारा-गर-ए-ख़ाक
मुज़फ्फर अली सय्यद
ग़ज़ल
हम को उस शोख़ ने कल दर तलक आने न दिया
दर-ओ-दीवार को भी हाल सुनाने न दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
ऐसी आँखें तू ने दीं ऐ हुस्न-ए-जानाना मुझे
ज़र्रा ज़र्रा अब नज़र आता है बुत-ख़ाना मुझे
मुज़तर मुज़फ़्फ़रपूरी
ग़ज़ल
निशाँ इल्म-ओ-अदब का अब भी है उजड़े दयारों में
कि 'सालिम' और 'मुज़्तर' हैं पुरानी यादगारों में
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
तुझ से रह रह कर मुझे आती है क्या क्या बू-ए-दोस्त
दिल हुआ जाता है मुज़्तर ऐ हवा-ए-कू-ए-दोस्त
हामिद हुसैन हामिद
ग़ज़ल
वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला
या किसी के हुस्न-ए-आलम-ताब का दफ़्तर खुला
यगाना चंगेज़ी
ग़ज़ल
हम से न पूछिए कि किधर देखते रहे
थी देखने की चीज़ जिधर देखते रहे