aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "dhaa.npe"
ये रूहें इस लिए चेहरों से ख़ुद को ढाँपे हैंमिले ज़मीर तो इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दे
तन को ढाँपे हुए फिरते हैं सभी लोग यहाँशर्म आती है किसे सोच की उर्यानी से
चेहरे को चेहरे से ढाँपे फिरते लोगबोलते हैं तो लहजे बंजर लगते हैं
धनक उभरे सर-ए-अफ़्लाक कड़ी धूप में भीदश्त-ए-वहशत में अगर तेरा ख़याल आ जाए
मंज़र की दीवार के पीछे इक मंज़रकाली चादर से मुँह ढाँपे इक मंज़र
बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानीहवस के नाम पर धागा नहीं है
दिए जैसा बदन ढाँपे हुए थाहवा होने का दम भरता हुआ मैं
पड़ी है ज़िंदगी ढाँपे लपेटेफ़ना दौड़े फिरे है दंदना के
खट्टी मीठी सी कोई बात लबों में ले करमुँह को ढाँपे हुए आँचल से बंधे रहते हैं
सर को अपने क्या ढाँपे हमछत पर ही जब साया नहीं है
तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बूहम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुशबूहम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
आ गई याद शाम ढलते हीबुझ गया दिल चराग़ जलते ही
शफ़क़ धनक महताब घटाएँ तारे नग़्मे बिजली फूलइस दामन में क्या क्या कुछ है दामन हाथ में आए तो
रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दमधोए धब्बे जामा-ए-एहराम के
पसंद आया बहुत हमें पेशाख़ुद ही अपने घरों को ढाने का
हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलतेअब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते
धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगावो लम्स मेरे बदन को गुलाब कर देगा
दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता हैऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से
हँसती आँखें लहू रुलाएँ खिलते गुल चेहरे मुरझाएँक्या पाएँ बे-महर हवाएँ दिल धागे उलझा देने से
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