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ग़ज़ल
ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा
सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जब जलते पतंगों को देखा 'दीदार' तो ये मालूम हुआ
आग़ाज़-ए-मोहब्बत ठीक तो है अंजाम-ए-मोहब्बत ठीक नहीं
दीदार बस्तवी
ग़ज़ल
किनारा ख़्वाब को है चश्म-ए-तर से आशिक़ के
ख़याल-ए-जल्वा-ए-दीदार-ए-यार कैसे हो
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
बुझती नहीं है तिश्नगी दीदार-ए-यार की
नज़रों से उन के लाख पिलाने के बअ'द भी