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ग़ज़ल
ज़ंजीरों के बदले अब भी गहने पाती हूँ जैसे
सदियों से ये जब्र के बंधन बीच हमारे उस के थे
कहकशाँ तबस्सुम
ग़ज़ल
वाँ तो हाँ हूरों के गहने के बहुत होंगे निशाँ
इन परी-ज़ादों के छल्लों की निशानी फिर कहाँ
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
आप के नाम किए 'सीमा' ने सारे ख़ज़ाने ख़ुशियों के
महकी रुत के दिनों के जल्वे रात के गहने आप के नाम
सीमा फ़रीदी
ग़ज़ल
हर नफ़स उन के तबस्सुम ने मसर्रत बख़्शी
साया-ए-ग़म से रुख़-ए-ज़ीस्त को गहने न दिया