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ग़ज़ल
दबी हुई है ज़ेर-ए-ज़मीं इक दहशत गुंग सदाओं की
बिजली सी कहीं लरज़ रही है किसी छुपे तह-ख़ाने में
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
सोचती हूँ क्यूँ मैं जैसे गुंग हो कर रह गई
इस तरह सीने में दिल पहले कभी धड़का न था