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ग़ज़ल
कोई ग़ुंचा हो कि गुल हो कोई शाख़ हो शजर हो
वो हवा-ए-गुलसिताँ है कि सभी बिखर रहे हैं
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
मेरा क्या इक मौज-ए-हवा हूँ पर यूँ है ऐ ग़ुंचा-दहन
तू ने दिल का बाग़ जो छोड़ा ग़ुंचे बे-उस्ताद हुए
जौन एलिया
ग़ज़ल
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
बोसे को पूछता हूँ मैं मुँह से मुझे बता कि यूँ