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ग़ज़ल
फिर रूहें ज़ख़्मी ज़ख़्मी हैं फिर कोढ़ से दुखने आए बदन
यूँ लगता है कि शफ़ाअत को फिर कोई ग्वाला आएगा
साबिर वसीम
ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो