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ग़ज़ल
सलीब ओ दार की सब रहमतों के पेश-ए-नज़र
वो तबर्रुक करते हुए हिर्स-ए-इज़्ज़-ओ-जाह चले
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
थोड़ी सी वज़' ओढ़ ली और वज़'-दार हो गए
अस्हाब-ए-इज़-ओ-जाह में हम भी शुमार हो गए
एहतिशामुल हक़ सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
तू ख़ुद है ख़ार-अो-ज़बूँ हिर्स-ओ-आज़-ए-दुनिया में
खुलेगा तुझ पे कहाँ जो जहाँ है पोशीदा
अनवर सदीद
ग़ज़ल
सदा रहा तो हम-क़दम सुख़न के इस मक़ाम तक
हैं साँझी ख़िल'अतें हमारी 'इज़्ज़-ओ-जाह मुश्तरक
नसरीन सय्यद
ग़ज़ल
अता हो दर से तिरे इज़्ज़-ओ-जाह की दौलत
निगाह-ए-ख़ल्क़ में कर दे बड़ा बड़ाई न दे