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ग़ज़ल
तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी
नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
साया करते हैं हुमा उड़ के परों से अपने
तेरे रुख़्सार से दिलचस्प हो अन्क़ा है वो रुख़
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
हुमा यूँ उस्तुख़्वान-ए-सोख़्ता पर मेरे गिरता है
तड़प कर शम्अ पर जैसे कोई परवाना आता है