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ग़ज़ल
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम
गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सितम पे ख़ुश कभी लुत्फ़-ओ-करम से रंजीदा
सिखाईं तुम ने हमें कज-अदाइयाँ क्या क्या