aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "inaam azmi"
जैसा सोचो वैसा मतलब होता हैहल्की बात का गहरा मतलब होता है
समझने वाला मिरा मर्तबा समझता हैसो फ़र्क़ पड़ता नहीं कौन क्या समझता है
कौन है मेरा ख़रीदार नहीं देखता मैंधूप में साया-ए-दीवार नहीं देखता मैं
जिस तरफ़ देखिए बाज़ार उदासी का हैशहर में कौन ख़रीदार उदासी का है
तसव्वुरात में वो ज़ूम कर रहा था मुझेबहुत शदीद तवज्जोह का सामना था मुझे
जुदा हो कर समुंदर से किनारा क्या बनेगानहीं सोचा है अब तक वो हमारा क्या बनेगा
कभी तो चश्म-ए-फ़लक में हया दिखाई देकि धूप सर से हटे और घटा दिखाई दे
फ़ाएदा उस में हो या अपना ख़सारा चाहिएचाहिए तो बस वही परवरदिगारा चाहिए
दर-ए-उमीद मुक़फ़्फ़ल नहीं हुआ अब तकमैं तेरे हिज्र में पागल नहीं हुआ अब तक
जो चला आता है ख़्वाबों की तरफ़-दारी कोउस ने देखा ही नहीं आलम-ए-बे-ज़ारी को
सोचता हूँ सदा मैं ज़मीं पर अगर कुछ कभी बाँटतातो अंधेरों के नज़दीक जाता उन्हें रौशनी बाँटता
हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँआदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ
ज़ख़्म अपना किसी को दिखाया नहींज़िंदगी को तमाशा बनाया नहीं
ज़िंदगी में रंग भर के मर गएजिन को जीना था वो पहले मर गए
फ़रिश्ता होने से मुश्किल है आदमी होनाकि आदमी को ज़मीनों पे आना पड़ता है
जो दरिंदे थे पढ़ रहे थे नमाज़और उन का इमाम आदमी था
चाहे आदम की दुनिया हो या छोटा सा घर हो मेराधीरे-धीरे एक आदमी एक क़बीला हो जाता है
'शकील' शाह के मानिंद चाहता है बहुत'नम' आज़मी भी मुझे आइना समझता है
जैसे हो तदबीर-दर-तदबीर राज़-ए-ज़िंदगीआदमी यूँ देखता है आइना-दर-आइना
ज़िंदगी-ओ-मौत वाहिद आइनाआदमी है हद्द-ए-फ़ासिल के क़रीब
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