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ग़ज़ल
किया है वा'दा-ए-फ़र्दा उन्हों ने देखिए क्या हो
यहाँ सब्र ओ तहम्मुल आज ही से हो नहीं सकता
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
मैं उन के पर्दा-ए-बेजा से मर गया 'मुज़्तर'
उन्हों ने मार ही डाला हिजाब कर के मुझे
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी 'अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
हिना तेरे कफ़-ए-पा को न उस शोख़ी से सहलाती
ये आँखें क्यूँ लहू रोतीं उन्हों की नींद क्यूँ जाती