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ग़ज़ल
जल्वा अफ़रोज़ है का'बा के उजालों की तरह
दिल की ता'मीर कि कल तक थी शिवालों की तरह
यज़दानी जालंधरी
ग़ज़ल
इलाही वो बू-ए-पैरहन से भी पहले हो हम-कनार आ कर
चमन में होता है जल्वा-अफ़रोज़ फूल से माहताब पहले
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-आलम-ए-क़ुदसी में है नश्व-ओ-नुमा मेरी
मुकाफ़ात-ए-अमल से दूर है बीम-ओ-रजा मेरी
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
मुझी को पर्दा-ए-हस्ती में दे रहा है फ़रेब
वो हुस्न जिस को किया जल्वा-आफ़रीं मैं ने
अख़्तर अली अख़्तर
ग़ज़ल
थीं जो कल तक जल्वा-अफ़रोज़ी से शम-ए-अंजुमन
आज वो शक्लें चराग़-ए-ज़ेर-ए-दामाँ हो गईं