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ग़ज़ल
वो किस के लिए सिंघार करे चंदन सा बदन यूँ रूप भरे
जब माँग झका-झक होती है आईना झला-झल रोता है
शाज़ तमकनत
ग़ज़ल
सहर-ए-दम किर्चियाँ टूटे हुए ख़्वाबों की मिलती हैं
तो बिस्तर झाड़ कर चादर हटा कर देख लेता हूँ