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ग़ज़ल
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा कि शमएँ दो फ़रोज़ाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या कि ये बे-मेहर लोग
जू-ए-ख़ूँ को नाम दे देते हैं जू-ए-शीर का
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अभी हम क़त्ल-गह का देखना आसाँ समझते हैं
नहीं देखा शनावर जू-ए-ख़ूँ में तेरे तौसन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जू-ए-एहसास में लर्ज़ां ये गुरेज़ाँ लम्हात
नग़्मा-ए-दर्द में ढल जाएँ ज़रूरी तो नहीं
ज़ाहिदा ज़ैदी
ग़ज़ल
'मजरूह' उठी है मौज-ए-सबा आसार लिए तूफ़ानों के
हर क़तरा-ए-शबनम बन जाए इक जू-ए-रवाँ कुछ दूर नहीं
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
जहाँ में रह के यूँ क़ाएम हूँ अपनी बे-सबाती पर
कि जैसे अक्स-ए-गुल रहता है आब-ए-जू-ए-गुलशन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
अगर उस की ये ख़्वाहिश हो कि जू-ए-शीर लाज़िम है
फ़क़त इक बार 'ख़ालिद' वो पुकारे मैं बनाऊँगा
ख़ालिद नदीम शानी
ग़ज़ल
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग ओ साज़-हा मस्त-ए-तरब
शीशा-ए-मय सर्व-ए-सब्ज़-ए-जू-ए-बार-ए-नग़्मा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
काट कर रातों के पर्बत अस्र-ए-नौ के तेशा-ज़न
जू-ए-शीर-ओ-चश्मा-ए-नूर-ए-सहर लाते रहे