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ग़ज़ल
क़द्र कुछ भी मिरे दिल की बुत-ए-काफ़िर ने न की
ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ से जो उलझा तो मिरे सर मारा
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
तुम जिन्हें कहते हो काफ़र उन्हें आ कर देखो
कैसे करते हैं ये इंसान की ख़िदमत लिखना
फ़हमीदा मुसर्रत अहमद
ग़ज़ल
यार 'क़मर' की बातों का क्या उस की एक ही रट
लिखता है बस नाम तिरा वो काफ़र-वाफ़र क्या
क़मर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
जिस मुसलमाँ ने उसे देखा वो काफ़र हो गया
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
उठ गया चल के तिरे दर से मैं गो का'बा को
पर ये ज़ुन्नार वहाँ भी बुत-ए-काफ़र तोड़ा