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ग़ज़ल
इक क़लंदर की तरह वक़्त रहा महव-ए-ख़िराम
उस ने कब ध्यान ''तलब'' शोर-ए-सगाँ पर रक्खा
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ
हम से अजब तिरा दर्द का नाता देख हमें मत भूल मियाँ