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ग़ज़ल
क़िर्तास ओ क़लम हाथ में है और शब-ए-मह है
ऐ रब्ब-ए-अज़ल खोल दे जो दिल में गिरह है
मोहम्मद इज़हारुल हक़
ग़ज़ल
हक़ तो ये है कि मुझे अपने ही दिल ने लूटा
कुछ तिरा शिकवा-ए-बेदाद करूँ या न करूँ
सुल्तानुल हक़ शहीदी काश्मीरी
ग़ज़ल
तू ने हम से कलाम भी छोड़ा अर्ज़-ए-वफ़ा के सुनते ही
पहले कौन क़रीब था हम से अब तो और बईद हुआ