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ग़ज़ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अभी मे'राज का क्या ज़िक्र ये पहली ही मंज़िल है
हज़ारों मंज़िलें करनी हैं तय हम को कठन पहले
विनायक दामोदर सावरकर
ग़ज़ल
सुनो तो ख़ूब है टुक कान धर मेरा सुख़न प्यारे
कि आशिक़ पर न होना इस क़दर भी दिल कठन प्यारे
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
अभी से रह-नवर्द-ए-इश्क़ हिम्मत हार बैठे हैं
गुज़रनी हैं अभी तो घाटियाँ उन को कठन क्या क्या
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
ग़ज़ल
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ याँ ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ बज़्म में वो बुलाए क्यूँ