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ग़ज़ल
ग़ुलाम की रोज़ ओ शब ग़ुलामी में क्या कमी थी
कनीज़ के इल्तिफ़ात ओ ख़ूबी में क्या कमी थी
ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल
ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है
ये दिल उस पे माइल मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है
ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल
लगे जब प्यास तो रिसता लहू पीने नहीं देता
उधड़ती खाल भी मेरी मुझे सीने नहीं देता
ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल
ख़ालिद इक़बाल यासिर
ग़ज़ल
कभी न आसूदा-ए-अमल हो मगर इरादा भी कम नहीं है
और इस इरादे का ऊँची आवाज़ में इआदा भी कम नहीं है