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ग़ज़ल
जो हो दूर-अज़-ख़याल-ए-'मानी'-ओ-'बहज़ाद' हर सूरत
बग़ैर-अज़-मू-क़लम खींचीं वो तस्वीर-ए-ख़याली हम
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़्सूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है