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ग़ज़ल
नज़्र माँगे जो गुलिस्ताँ से ख़ुदा-वन्द-ए-जहाँ
साग़र-ए-मय में लिए ख़ून-ए-बहाराँ चलिए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
क़िबला-ओ-का'बा ख़ुदा-वंद-ओ-मलाज़-ओ-मुशफ़िक़
मुज़्तरिब हो के उसे मैं ने लिखा क्या क्या कुछ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये भी इक तुर्फ़ा तमाशा है ख़ुदा-वन्द-ए-जहाँ
तेरी दुनिया को गुनहगार सँभाले हुए हैं
सुल्तान अख़्तर
ग़ज़ल
रब्ब-ए-इज़्ज़त के लिए भी कोई रहने दो ख़िताब
तुम ख़ुदावंद ही कहलाओ ख़ुदा और सही
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
अब कबूतर फ़ाख़ताएँ जा चुकी हैं गाँव से
ऐ ख़ुदावंद पेड़ की और बस्तियों की ख़ैर हो
अहमद सज्जाद बाबर
ग़ज़ल
तेरी रहमत के सहारों ने ख़ुदावंद-ए-करीम
ग़र्क़ होने से सफ़ीने को बचा रक्खा है