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ग़ज़ल
वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं या-रब दिल के पार
जो मिरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्गाँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
संग तो कोई बढ़ के उठाओ शाख़-ए-समर कुछ दूर नहीं
जिस को बुलंदी समझे हो उन हाथों की कोताही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
लज़्ज़त-ए-नग़्मा कहाँ मुर्ग़-ए-ख़ुश-अलहाँ के लिए
आह उस बाग़ में करता है नफ़स कोताही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
समझ इस फ़स्ल में कोताही-ए-नश्व-ओ-नुमा 'ग़ालिब'
अगर गुल सर्व के क़ामत पे पैराहन न हो जावे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
जहाँ बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
क्या पूछते हो दस्त-ए-क़नाअत की कोतही
कुछ वा शब-ए-विसाल में बंद क़बा किया
हकीम मोहम्मद अजमल ख़ाँ शैदा
ग़ज़ल
संग तो कोई बढ़ के उठाओ शाख़-ए-समर कुछ दूर नहीं
जिस को बुलंदी समझे हो इन हाथों की कोताही है
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
ग़रज़ ये है न हो फ़िक्र-ओ-अमल में कोताही
ख़ुदा दिलों को अगर इज़्तिराब देता है