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ग़ज़ल
कहा मैं ने बात वो कोठे की मिरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा कि जाने मिरी बला तुम्हें याद हो कि न याद हो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
इक मा'सूम से प्यार का तोहफ़ा घर के आँगन में पाया था
उस को ग़म के पागल-पन में कोठे कोठे बाँट दिया है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
देखा न तुझे ऐ रब हम ने हाँ दुनिया तेरी देखी है
सड़कों पर भूके बच्चे भी कोठे पर अब्ला नारी भी
आज़िम कोहली
ग़ज़ल
घर से बाहर तुम्हें आना है अगर मनअ तो आप
अपने कोठे पे कबूतर तो उड़ा सकते हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
चढ़ा कोठे पे दरवाज़े को मूँद और खोल कर पर्दे
लगा छाती लिए बोसे क्या हत फेर आँधी में
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
रात को सोने को क्या क्या नर्म-ओ-नाज़ुक थे पलंग
बैठने को दिन के क्या क्या कोठे और दालान थे