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ग़ज़ल
क्यूँ न वहशत-ए-ग़ालिब बाज-ख़्वाह-ए-तस्कीं हो
कुश्ता-ए-तग़ाफ़ुल को ख़स्म-ए-ख़ूँ-बहा पाया
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मैं तो हूँ कुश्ता-ए-अबरू-ए-बुत-ए-मुसहफ़-ए-रू
मू-क़लम से मिरे तुर्बत पे लिखो बिस्मिल्लाह
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
कुश्ता-ए-ज़हर-ए-ग़म-ए-हिज्र नहीं तू तो 'हसन'
लख़्त-ए-दिल क्यूँ तिरे अश्कों में हरे आते हैं
मीर हसन
ग़ज़ल
आज तक आवाज़ आती है दहान-ए-गोर से
है ये मदफ़न कुश्ता-ए-तेग़-ए-लब-ए-तक़रीर का
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
दिल से गर्द-ए-ग़म-ए-कौनैन तो धोई जाती
काश हम कुश्ता-ए-शमशीर-ए-दो-नाबी होते
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
उड़ के जो पहुँची सबा के साथ गलियों में तिरी
मुश्त-ए-ख़ाक-ए-कुश्ता-ए-तेग़-ए-अदा थी मैं न था