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ग़ज़ल
आमिर उस्मानी
ग़ज़ल
कि ख़िरद की फ़ित्नागरी वही लुटे होश छा गई बे-ख़ुदी
वो निगाह-ए-मस्त जहाँ उठी मिरा जाम-ए-ज़िंदगी भर गया
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
वो जो निकला नहीं तो भटकते रहे हैं मुसाफ़िर कई
और लुटते रहे हैं कई क़ाफ़िले चाँद को क्या ख़बर
वसी शाह
ग़ज़ल
सुनते हैं कि इन राहों में मजनूँ और फ़रहाद लुटे
लेकिन अब आधे रस्ते से लौट के वापस जाए कौन
फ़ज़्ल ताबिश
ग़ज़ल
भरोसा कर लिया जिस पर उसी ने हम को लूटा है
कहाँ तक नाम गिनवाएँ सभी ने हम को लूटा है