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ग़ज़ल
फ़रहान सालिम
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तक़दीर ही कुछ अपनी मटर-गश्त किए है
'तमजीद' ये मुमकिन है महालात बता दूँ