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ग़ज़ल
ग़ैर से दूर, मगर उस की निगाहों के क़रीं
महफ़िल-ए-यार में इस ढब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
महफ़िल-ए-यार में कुछ बात न निकली मुँह से
कहने को शम्अ की मानिंद ज़बाँ रखते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कहीं गर्म बज़्म-ए-हबीब है कहीं सर्द महफ़िल-ए-यार है
कहीं इब्तिदा-ए-सुरूर है कहीं इंतिहा-ए-ख़ुमार है
ग़ुबार भट्टी
ग़ज़ल
है ज़िक्र-ए-यार क्यूँ शब-ए-ज़िंदाँ से दूर दूर
ऐ हम-नशीं ये तर्ज़ ग़ज़ल का कभी न था