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ग़ज़ल
जिस पे कि बैठ के वाइ'ज़ ने मज़म्मत मय की
मजलिस-ए-वाज़ में रिंदों ने वो मिम्बर उल्टा
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
मजलिस-ए-वाज़ में क्या मेरी ज़रूरत नासेह
घर में बैठा हुआ शुग़ल-ए-मय-ओ-मीना न करूँ
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
ज़ख़्म मिलते हैं इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल मिलता नहीं
वज़-ए-क़ातिल रह गई रस्म-ए-मसीहाई गई
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
तलव्वुन चश्म-ए-साक़ी में तग़य्युर वज़्-रिंदी में
हमारे मय-कदे में रोज़ पैमाने बदलते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
दिल-ओ-दिलबर सही अब ख़्वाब से बेदार हैं दोनों
शरीक-ए-मज्लिस-ए-आराइश-ए-गुफ़्तार हैं दोनों
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
ऐ ख़िज़्र-ए-वक़्त मजलिस-ए-अक़्ताब-ए-वक़्त में
ज़िक्र-ए-मोआ'मला हो न फ़िक्र-ए-मआल हो