aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "makkhan"
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहींकि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूदख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या
बर्फ़ में दबा मक्खन मौत रेल और रिक्शाज़िंदगी ख़ुशी रिक्शा रेल मोटरें डोली
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाएहुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
रुतें लौटीं न वो लौटा नगर मेंचुराने शहद मक्खन साग रोटी
हर सुब्ह को हर शाम को मक्खन की दुकाँ परमक्खन की मिलावट पे झगड़ता कोई दिन और
'ताहिर' ग़ज़ल को और अभी साफ़ कीजिएमक्खन से कुछ निकालिए थोड़ी सी छाच और
कुछ बुत नए ज़रूर तराशे गए मगरमैं क्या किसी से कम हूँ बिगड़ने के बा'द भी
इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जाकि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं
का'बा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'शर्म तुम को मगर नहीं आती
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगामगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँहमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले
कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखेंछतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ज़रा सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतनावही लन-तरानी सुना चाहता हूँ
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का 'फ़राज़'ज़ालिम अब के भी न रोएगा तो मर जाएगा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगरजंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो हैलम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस नेबात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थीकि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नयायहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
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