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ग़ज़ल
शौक़ में ज़ब्त है मलहूज़ मगर क्या मा'लूम
किस घड़ी बे-ख़बर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ हो जाऊँ
सिराजुद्दीन ज़फ़र
ग़ज़ल
बुलाने के तरीक़े से बुलाया कीजिए हम को
रहे मल्हूज़-ए-ख़ातिर कम से कम बार-ए-दिगर इतना
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
थी हमें मल्हूज़-ए-ख़ातिर नेक-नामी इस क़दर
चूम कर नज़रों से उन के बाम-ओ-दर वापस हुए