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ग़ज़ल
मर्ग-ए-'जिगर' पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
गर दिल को बस में पाएँ तो नासेह तिरी सुनें
अपनी तो मर्ग-ओ-ज़ीस्त है उस बेवफ़ा के हाथ
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जम्अ' ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
क्या हुई तक़्सीर हम से तू बता दे ऐ 'नज़ीर'
ताकि शादी-मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी आ ही गया
उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम