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ग़ज़ल
मर्ग-ए-'जिगर' पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के ब'अद
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
अब न कोई ख़ौफ़ दिल में और न आँखों में उमीद
तू ने मर्ग-ए-ना-गहाँ बीमार अच्छा कर दिया
आदिल मंसूरी
ग़ज़ल
जो हयात-ए-जाविदाँ है जो है मर्ग-ए-ना-गहाँ
आज कुछ उस नाज़ उस अंदाज़ की बातें करो
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
आरज़ूओं का शबाब और मर्ग-ए-हसरत हाए हाए
जब बहार आए गुलिस्ताँ में तो मुरझाता हूँ मैं
आग़ा हश्र काश्मीरी
ग़ज़ल
किस को पार उतारा तुम ने किस को पार उतारोगे
मल्लाहो तुम परदेसी को बीच भँवर में मारोगे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जो बैठा है सफ़-ए-मातम बिछाए मर्ग-ए-ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में वो दानिश-वर है ख़तरे में
हबीब जालिब
ग़ज़ल
खोल के क्या बयाँ करूँ सिर्र-ए-मक़ाम-ए-मर्ग ओ इश्क़
इश्क़ है मर्ग-ए-बा-शरफ़ मर्ग हयात-ए-बे-शरफ़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मुझ को कुढ़ा कुढ़ा के वो मारेंगे जान से
दिलबर हुए तो क्या मिरे प्यारे हुए तो क्या