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ग़ज़ल
कभी सर्द आहों के सिलसिले कभी ठंडी साँसों के मश्ग़ले
वो हमारी नक़लें उतारना तुम्हें याद हो कि न याद हो
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
'जौहर' इस एक दिल के लिए इतने मश्ग़ले
की है ख़ुदा की चाह तो इश्क़-ए-बुताँ न हो
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
ग़म-ए-दौराँ मिरे बाज़ू-ए-शिकस्ता से न खेल
मश्ग़ले मेरी जवानी के लिए और भी हैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
न तुम बे-कार बैठे हो न हम बे-कार बैठे हैं