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ग़ज़ल
मज़हब-ए-इश्क़ के इरफ़ान पे हैराँ निकला
क़ैस जब दश्त को निकला तो परेशाँ निकला
मर्ग़ूब असर फ़ातमी
ग़ज़ल
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
'अश्क' अपने सीना-ए-पुर-ख़ूँ में सैल-ए-अश्क भी
रोक रखता हूँ जिगर के ख़ून की तहलील तक
अश्क अमृतसरी
ग़ज़ल
दो बोल दिल के हैं जो हर इक दिल को छू सकें
ऐ 'अश्क' वर्ना शेर हैं क्या शाइरी है क्या
इब्राहीम अश्क
ग़ज़ल
काग़ज़-ए-अब्री पे लिख हाल-ए-दिल-ए-पुर-सोज़-ए-इश्क़
गिर्द उस के बर्क़ की तहरीर खींचा चाहिए
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
कब ज़रूरी है कि हम क़ैस की सुन्नत पे चलें
मज़हब-ए-इश्क़ में बिदअ'त भी तो हो सकती है
यूनुस तहसीन
ग़ज़ल
मज़हब-ए-इश्क़ में जाएज़ है सभी कुछ 'हाशिम'
आज तुम जान हो कल दुश्मन-ए-जाँ होना है