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ग़ज़ल
कशमकश-हा-ए-अलम से अब ये 'हसरत' जी में है
छुट के इन झगड़ों से मेहमान-ए-क़ज़ा हो जाइए
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
ख़ुशियाँ जा बैठीं कहीं ऊँची सी इक टहनी पर
दिल के बहलाने को इक लफ़्ज़-ए-क़ज़ा रक्खा है
इब्न-ए-उम्मीद
ग़ज़ल
ये गुल भी ज़ीनत-ए-आग़ोश-ए-दरिया-ए-क़ज़ा निकले
जिन्हें हम बा-वफ़ा समझे थे वो भी बेवफ़ा निकले
ऐश मेरठी
ग़ज़ल
जो इन हसीनों पे मरते हैं जीते-जी 'मुज़्तर'
वो इंतिज़ार-ए-पयाम-ए-क़ज़ा नहीं करते
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
बना कर बिगाड़ा हमें क्यूँ जहाँ में
ये सब हर्फ़ क्या सहव-ए-किल्क-ए-क़ज़ा थे
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
'इश्क़ ही बख़्शे है ख़ुश-मंज़री हम को 'गौहर'
वर्ना याँ सिलसिला-ए-रक़्स-ए-क़ज़ा देखते हैं
कुलदीप गौहर
ग़ज़ल
बुर्रिश-ए-तेग़-ए-अदा-ए-दोस्त का एहसास है
अब रहीन-ए-मिन्नत-ए-तीर-ए-क़ज़ा कोई नहीं