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ग़ज़ल
ख़ाल-ए-आरिज़ देख लो हल्क़े में ज़ुल्फ़-ए-यार के
मार-ए-मोहरा गर न देखा हो दहन में मार के
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
हर एक बाज़ी है तेरी ये खेल है तेरा
मैं सिर्फ़ मोहरा हूँ या-रब बिसात तेरी है
आज़िम गुरविंदर सिंह कोहली
ग़ज़ल
रअशा थी ज़बाँ में लुक्नत पाँव बेड़ी मोहरा देंगे
मुँह से कुछ का कुछ निकलेगा दिल में जो ठहराओगे तुम
रज़ा अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
उन्हीं के सर रहा करता है मोहरा ना-ख़ुदाई का
जो क़तरे की हक़ीक़त को भी इक दरिया समझते हैं