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ग़ज़ल
कुछ जुनूँ की सरफ़रोशी कुछ ख़िरद का बाँकपन
वर्ना है उज़्व-ए-मुअत्तल आलम-ए-असबाब भी
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
ख़ल्क़ को मारे है चश्म उस की मुअत्तल है क़ज़ा
फ़ित्ना है उस की निगह में आसमाँ बे-कार है
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
आएँ वो शौक़-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है