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ग़ज़ल
नहीं होता है मुहताज-ए-नुमाइश फ़ैज़ शबनम का
अँधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
क्या तिरे ही क़ुर्ब के मुहताज थे सब सिलसिले
कुछ समझ में ही नहीं आता कि मैं अब क्या करूँ
रियाज़ मजीद
ग़ज़ल
मह-जबीं हैं उन्हें बिंदिया की ज़रूरत क्या है
क्यों वो महताब पे महताब लिए फिरते हैं
फ़सीहुल्ला नक़ीब
ग़ज़ल
अब के मुख़्तार ने मुहताज की दीवार का क़द
जितना मामूल है उतना भी निकलने न दिया